बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

इंसान की ख्वाहिशो की कोई इन्तेहा नहीं

इंसान की ख्वाहिशो की कोई इन्तेहा नहीं
दो गज ज़मीन चाहिए दो गज कफ़न के बाद
रोज़ सुबह उठते ही मन में नई ख्वाहिश जागने लगती हे काश ऐसा होता काश वैसा होता सब कुछ तो हे पास मगर फिर भी कोई तो कमी हे काश मेरा घर इतना बड़ा होता की साड़ी कायनात उसमे समा जाती काश मेरे पास इतना पैसा होता की हम चाँद तारे भी खरीद पते पर कहते है न
हजारो ख्वाहिशे ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमा मगर फिर भी कम निकले
कितना भी मिलता हे कम ही रहता हे कभी सुकून की दो सांस नसीब नहीं होती हम भागते रहते है हमेशा परछाइयों के पीछे और अपने आप को भी खो देते हे जब होश आता हे तो हातह खली होते हे और दिल परेशा ।
अपनी पहचान बनाते बनाते हम खुद खो जाते है एक ऐसे अँधेरे में जहा कोई रौशनी की किरण नज़र नहीं आती
पर फिर भी हमारी ख्वाहिशे ख़तम नहीं होती । हमेशा बेहतर और बेहतर पाने की ख्वाहिश हमे अपनों से दूर कर देती है हम भूल जाते है की हम क्यों और किसकी ख्वाहिशो के पीछे भाग रहे थे । इसलिए तो आँखे बंद कर ख्वाहिशो के पीछे भागने की वजाय जाने की आखिर हम क्या चाहते है और हमारी ज़रूरत कितनी है
मालिक इतना दीजिये जा में कुटुम समाये
में भी भूका न रहू साधू न भूका जाये

4 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

जीवन ही आपाधापी का नाम है .... बस ख्वाहिशें लेकर चलते चलो....बहुत बढ़िया प्रस्तुति ...

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

bhav bahut achchhe hain
krpya hindi matraon par dhyan den

vandana gupta ने कहा…

सही कहा आपने……………।जब तक संतोष नही आयेगा ख्वाहिशें तो अपने पैर पसारेंगी ही।

बेनामी ने कहा…

अगर आपकी हर ख्वाहिश पूरी हो जाये तो आप तो भगबान को भूल ही जाओगे इसलिये कुछ चीजों का अधूरा रह जाना ही अच्छा है