गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

न्याय के लिए अन्याय की जंग

एक बहुत पुरानी कहावत है जब जब धरती पर पाप बढता है तो उसका दमन करने के लिए कोई अवतार जन्म लेता है जो पापियों का नाश करता है और मज़लूमो को उनका हक दिलाता है। पर ये कलयुग है यहाँ पाप तो लगातार बढ रहा है पर किसी अवतार का कोई अता पता नहीं शायद ये भी कोई दादी की पारी कथा ही होगी वरना भगवान् इतना निर्दयी कैसे हो सकता है की ज़ुल्म का घडा सर से ऊपर जाकर बहे और कोई अवतार ना आये । हाँ कुछ लोग ज़रूर खुद को हीरो समझ कर खुद ही ज़ुल्म का नाश करने निकल पड़ते है पर ज़ुल्म तो वही का वही रहता है पर उनकी इस महानता की सज़ा उन लोगो को मिलती है जो पहले से ही सज़ा भुगत रहे है इस देश का एक आम नागरिक होने की । ऐसे ही कुछ विकृत मानसिकता के लोग है जो खुद को देश का हितेषी मानते है और नक्सल वाद को जन्म देते है। आखिर ये क्या करना चाहते है कोण सा समाज सुधारना चाहते है क्या बदलाव लाना चाहते है । ये सच हे की नक्सलवाद का जन्म आक्रोश की आंधी से ही हुआ है जब पाप बढता है तो आक्रोश जागता है और जब आक्रोश जागता है तो उसका हल धुंडने का समय किसी के पास नही होता उस वक़्त सही गलत समझ नहीं आता । लेकिन जब आप स्वयं ही अपना घर उजाड़ने पर टूल जाए तो ये कोनसा सुधार है । लोगो की जान लेने का हक तो किसी को नहीं है फिर आप कोन होते है किसी को सजा देने वाले । अगर सिस्टम से परेशानी है तो उसको बदलने की कोशिश कीजिये नाकि उसको समाप्त करने की परआज किस के पास वक़्त हा ये सब सोचने का हम परेशान है तो उठाओ बन्दूक और मार दो सामने वाले को ट्रेन रोक दो बम चलाओ जब तक धमाका नहीं होगा तो कोई नहीं सुनेगा यही मानसिकता हो गई हे लोगो की पर कभी कोई नहीं सोचता की उस धमाके में जो लोग मरे उनके परिवार वालोने आप का क्या बिगाड़ा था वो तो खुद आप में से ही एक थे अरे जिन्होंने ये सिस्टम बनाया आप तो उनको राजनीती करने के लिए और मौके ही दे रहे है जब कभी कोई ब्लास्ट होता है खूब भाषण होते है अगले चुनाव तक सभी राजनीतिक दल उस पर अपनी दाल रोटी सकते है। फिर सब ख़तम । सब यहाँ का यहाँ क्या परिवर्तन आया कुछ नहीं ना सिस्टम में ना आपमें परिवर्तन तो सिर्फ उस घर में आया होगा जिसने उस जगह अपनी जान दी चाहे वो पुलिस वाले हो या आम आदमी या नक्सली । सब कहते है सरकार कोई कदम नहीं उठाती जब जो पार्टी सत्ता में होती है उस पर दोष धर दिया जाता है की वो असफल है इस्तीफा दो आदि पर इस समस्या का समाधान इस्तीफे मांगने और सता बदलने से होना होता तो कबका हो चूका होता अरे पहले समस्या को समझिये तो फिर उसको जड़ से मिटाने की कोशिश कीजिये । समाज को शिक्षित बनाइये की वो अपना भला बुरा खुद सोच सके । उन्हें ज़ुल्म और अत्याचार और अपने हक की लड़ाई में फर्क पता तो चले क्यूँकी उन्हें तो ये भी नहीं पता की जो वो कर रहे है वो उनके हक की नहीं जुलम की लड़ाई है। सबसे पहले खुद को बदलो फिर समाज को बदलो क्यूंकि हम समाज से नहीं समाज हमसे बनता है । यही इस समस्या का सही निदान हो सकता है।

2 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

PAR YE TO KALYUG HAI YAHAN AKUN AYEGA

बेनामी ने कहा…

शायद कोई आ ही जाये......कलयुग है भई.